तहिया सौराठ सभा गनगनाइ छलै, भने उतारपर आबि गेल छल होइ । कन्यादान वा वरदान अपना रहनु, नहि रहनु, जे मैथिल ब्राह्मण चलबा जोग रहै छला, ओत’ एको-दू दिन ले’ जयबाक नेयार करिते छला । 1983-84 रहल होयतै । मैथिलीक निस्सन कवि, हमर गौआँ आ अनुज हरेकृष्ण झा भरिसक पटनासँ हमर दरभंगा डेरापर अयला आ दुनू गोटे विदा भेलहुँ सभा । दुपहरियासँ कने पहिने पहुँचलहुँ आ साँझसँ कने पहिने ओत’सँ बिदा भ’ रहिका चौकपर लागल एकटा ट्रेकर दिस लपकलहुँ । सभ सीट भरल छलै । जे सभ बैसल रहथि, पसरिक’ बैसल रहथि । कने र’झ’क बाद हरेकृष्णजीक चतुरतासँ ओ लोकनि थोड़े डोलबा ले’ तैयार भेला आ हम दुनू गोटे डाँड़ मोड़लहुँ ।
हरेकृष्णजी कहने रहथिन– कने जगह दितौं।
– कहाँ छै जगह ?
– कने-कने डोलि जैतिऐ तँ भ’ जैतै ।
– कत’ डोलू ? अहीँ कहू !
– कष्ट तँ होयबे करत, मुदा हम दुनू गोटे बड़ थाकल छी । क्यो तँ आबिक’ बैसिए जैत ।
– बैसि जाउ जँ जगह भेटि जाय ।
हम दुनू गोटे चारि-चारि आङुरपर बैसलहुँ आ धीरे-धीरे जगह बना लेलहुँ । सुभ्यस्त भेलाक बाद कने मनोरंजन सूझल । पुछलियनि हरेकृष्णजीसँ– अहाँक जगहपर जँ विनोदजी (उदयचन्द्र झा विनोद) रहितथि तँ की कहितथिन?
विनोदजी कहितथिन– औ घुसकू, हमहूँ सभ जयबै ! की कहलहुँ ? – कत’ घुसकब ? एना नहि बाजू, सभकेँ संगहि जयबाक अछि । — ई कहैत जेना-तेना बैसि रहितथिन ।
– आ मोहन भारद्वाज की कहितथिन ?
ओ अबैत देरी कहितथि– हरेकृष्णजी, अहाँ एत’ बैसू । औ, देखै नहि छियनि जे ई बैसता ? कने घुसकू तँ !
– कत’ घुसकू ?
– अहूँ सभ हद्द करै छी ! ई ट्रेकर छिऐ । सभकेँ जयबाक छै । हे एना घुसकू ! – ई कहैत बैसि जैतथिन ।
– आ भाइ साहेब (राजमोहन झा) जँ रहितथि ?
ओ अबैत देरी बजितथि– सीट सभ तँ भरल अछि । छोड़’ पड़त ई…। जगह मुदा भेटियो सकै अछि । …एना करू । भीम भाइ, अहाँ एहि फाँकमे चल जाउ ।… औ, कने सोझ भ’ जाउ ! कने अहूँ… कने अहूँ ! बस-बस । हम एत’ बैसि जाइ छी ।… हाँ-हाँ, एना नहि ठेलू ! औ बाबू, एना किए ठेलै छी ? देखै नइँ छी जे बैसल छी !
– दोषीजी (उपेन्द्र दोषी) रहितथि तखन ?
अबिते कहितथिन– संयोग देखू जे सभ अपने लोक बैसल छथि ।… भाइ साहेब ! अहाँकेँ चिन्हितो छी, भटकितो छी । क्योटी घर किने ?
– नहि, हम क्योटी नहि रहै छी ।
– तँ दुलहा रहैत हैब ! विनोदजीक दुलहा !
– नहि ।
– तँ कोन गाम भाइ साहेब ?
– सुन्दरपुर घर अछि ।
– तेँ ने ! हमहूँ तँ कहै छलौं जे कोना अहाँकेँ चिन्है छी ! देवनारायण बाबू ओत’अहाँ भेटल रही । मोन पड़ल की नहि ? भीम भाइ, ई अपने लोक थिका, जगह देता । अहाँ हिनक दहिना भ’ लियनु, हम बामा ध’ लै छियनि।… हे, अहाँक गाम तँ बुझू एखन मैथिली आन्दोलनक शिरमौर बनल अछि, देवनारायण बाबू ल’क’ !
– आ, मलंगियाजी जँ रहितथि ?
हरेकृष्णजी कह’ लगला— पहिने निच्चेसँ ठेकनबितथि । तखन कातमे बैसल लोकपर नजरि गड़बितथि । मोलामियतसँ कहितथिन– भाइजी, चून तँ हमरा अछि, तमाकू सधि गेल अछि । रहैत तँ अहाँकेँ बीटर तमाकू खुआ दितहुँ । (कने विराम) भाइजी, निकालियौ चुनौटी । हम जे बनैब से अहूँ कहब अलबत्त ! ( हुनकासँ तमाकू ल’ ) तखन चूनो अहीँक रहओ !… (चुनबैत) अहाँ सभ दिस अइ बेर समय केहन जा रहल छै ? बरखा जँ आगाँ दगा नहि देलकै तँ उपजा नीक हैबाक चाही । कि ने ! एकटा बात ईहो छै– जइ बेर आम नीक फड़त तइ बेर धान दगा द’ देत । जइ बेर आम बेलल्ला बना देत तइ बेर धान बखारी भरि देत ।
एतेक आपकताक बाद तमाकुलवला घुसकैत कहितथिन– हे, एत’ बैसि जाउ ।
मलंगियाजी डेन पकड़िक’– भीम भाइ, हे लिय’, एत’ बैसू । बैसू अहाँ ! हम लटकियो जैब ।… एहनो कतौ भेलैए, अहाँ छुटि जैब आ हम बैसि जाउ ?… हम लटकियो जैब । अगत्या तमाकुलवला बाजि उठितथि– औ, कने-कने डोलि जाउ । हिनको बैस’ दियनु ।… बाबू, कोन गाम रहै छी ?…
तँ ई थिका मलंगियाजी । कोनो स्थिति उकड़ू नहि । कोनो लोक अनचिन्हार नहि । उकडुओकेँ सुघड़ क’ लेब’वला, अनचिन्हारोकेँ आप्त बना लेब’वला गुन छनि हिनकामे ।
महा गुनझिक्कू छथि ई ! सोझाँवलाक गुन सट्ट द’ झीकि लै छथिन । अहाँकेँ पतो नहि चलत आ ई अहाँकेँ खखोड़ि लेता । ओहि खोखड़नकेँ, तत्त्वकेँ, सत्तकेँ नाटकमे खट द’ फिट क’ देता । ई बनबै कहाँ छथि ? ( रचै कहाँ छथि ? ) ई तँ हमरा-अहाँसँ, चिन्हार-अनचिन्हारसँ गओंसँ ल’ लै छथि आ नाटकमे ओहिनाक ओहिना राखि दै छथि । तँ एहनामे हिनक नाटक टाटक कोना भ’ सकै छनि ?
हरदम अनमनायल लगता, कखनो ओंघायलक सीमा धरि । तेजी ने चलबामे देखौता ने बजबामे । मुदा, रेजी चक्कू थिका ई । कोन बाटे नस्तर मारिक’ अहाँसँ ‘अहाँ’केँ निकालि लेता आ पतो नहि चल’ देता । ओही ‘अहाँ’केँ धो- पोछिक’ नाटकमे पिला दइ छथि, असली चेहरा ठाढ़ क’ दइ छथि । अहाँ ठामहि छी आ अहाँक ‘अहाँ’पर ओइ समेनामे हजारो लोक ठहक्का लगा रहल अछि !
जे नहि देखै छी से देखा देब, असम्भवकेँ सम्भव बना देब– यैह तँ जादू थिकै । कतोक नाटककार जादूगर बनि जाइ छथि आ रंगमंचपर जादू देखब’ लगै छथि । जादू लोक जतबा काल देखै अछि, ततबे काल चकित होइ अछि । खीसा खतम, पैसा हजम । मलंगियाजीकेँ मुदा जादूगर नहि कहबनि, किएक तँ पैसा हजम भेलाक बादो हिनक खिस्सा जारिए रहै छनि । अहाँमे ओ खिस्सा लस्सा जकाँ सटि जाइ अछि । आ, हिनक ठस्सा ई जे लस्सा लगा देल बक टिटिआइए, ओ अपने टघरि जाइ छथि दोसर शिकारमे । हम तेँ पक्का शिकारी कहै छियनि हिनका, अचूक निशानेबाज ।
पक्का सङे एक टा संज्ञा आर मन पड़ि गेल अछि, यद्यपि लोक ओकरा दूरि क’ देलकै अछि । मुदा शब्दक मूल अर्थ जे छै, ताहिमे कत्तौसँ उपहास वा गारि सन भाव नहि अबै छै । ताहूमे हिनका सङ तँ एकदमे नहि । हम तँ कहब जे ओकर जे नीकसँ नीक अर्थ भ’ सकै छै, से सर्वांगतः सार्थक होइ छै हिनकेमे । जे एहन नीक नाटक लिखय, एहन नीक निर्देशन देअय, एहन नीक अभिनय करय, तकरा नहि तँ ककरा कहबै पक्का खेलार ? लेखनसँ अभिनय धरि कोनो स्थल एहन नहि भेटत जत’ हिनक कला गच्चा खा गेल हो, जत’ कच्चा साबित भेल होथि ई । एहन नाट्यकलाकारकेँ पक्का खेलार नहि तँ आर की कहबै ?
मलंगियाजीक नाटकक समीक्षा करबाक क्षमता हमरा नहि, वास्तवमे नहि । एकर शास्त्र तते जटिल छै, प्रयोग एहिमे तते क्षिप्रतासँ भ’ रहल छै, रंगमंच तते समृद्ध भ’ रहलै अछि, एक-एक स्थलपर तते बारीकी आबि रहलै अछि, तकर जनतब हमरा कत’ ? हमर ‘अङने कते टा’ ? आ, मलंगियाजीकेँ तँ सगर नाट्यसंसारे हुनक अपन अङना । नाटके ओढ़ना नाटके बिछौना, वैह भावना वैह चिन्तना ! हम तँ एतबे बुझै छिऐ– मैथिलीक ‘सौभाग्य’ थिका मलंगियाजी ।
मलंगियाजी भीम भाइ कहै छथि तँ एकर माने ई नहि जे हम हुनकासँ जेठे होइयनि ! ताहि दिन हम की रही, से तँ नहि जनै छी, मुदा सुधाकान्त मिश्र (‘बटुक’ सम्पादक) हमरा भीमनाथ झा ‘भीम’ बना देने रहथि । ताहि दिन मलंगियोजी ‘मिथिला मिहिर’मे महेन्द्र झा सैह रहथि, जे कथा लिखथि, निबन्ध लिखथि । नाटक दिस ढुलला, तखन जाक’ महेन्द्र मलंगिया भेला । से भेला तँ खुट्टाठोक भेला । नाटक तँ नहिएँ, एकांकियो मिथिला मिहिरमे पहिने छपल रहनि की नहि, से मन नहि पड़ै अछि । ‘ओकरा आङनक बारहमासा’ लिखनहि रहथि आ मंचन कर’ चाहैत रहथि । संयोग नीक रहनि । दू-दू खेप पटनेमे मंचित भेलनि पहिने, आ एकाएक हिनक नामक पतक्खा फहरा गेलनि ।
एम्हर, मिथिला मिहिरक हजारम अंकक समय लगिचा रहल छलै । आने अंक जकाँ ओहो अंक ससरि जाइ, से नहि चाहैत रही । मनमे आबय जे किछु तँ विशेष ओहि अंकमे चाही अबस्स । ओही ऊहापोहमे रही कि ता ‘ओकरा आङनक बारहमासा’क पाण्डुलिपि भेटि गेल । अपना मने देने रहथि कि हमर आग्रहेँ, से मन नहि अछि । मुदा, पूरा नाटक एके अंकमे छपि जयतनि, से कल्पना प्रायः ओहो नहि कयने होयता । हमरो मनमे से नहि छल । हजारम अंकमे की विशेष रहक चाही, से स्थिर नहि भ’ रहल छल तँ एकाएक भेल, किए ने ‘ओकरा आङनक बारहमासा’क बारहो मासक गीतकेँ हजारम अंकक पन्नामे आनि हजारो आङन-घरमे एक्के बेर पहुँचा देल जाय ? सम्पादकजीक स्वस्ति लेबामे विशेष कठिनता नहि भेल । निर्धारित अंकमे हमर सम्पादकीय टिप्पणीक संग ओ सम्पूर्ण छपलै । ओहिसँ पहिने प्रभास कुमार चौधरीक सम्पूर्ण उपन्यास ‘युगपुरुष’ एक अंकमे छपल छलनि । एक अंकमे पूरा नाटक ई पहिले छल । सम्पादकीय टिप्पणी ताहि दिन भने किछु पाठककेँ अतिशयोक्तिपूर्ण कदाचित लागल होइनि, मुदा हमरा ने लिखबा काल से लागल छल ने बादमे लागल । आइ पढ़ै छी तँ लगैए, किछु आर माङ करै छलै ई । मिथिला मिहिरक हजारम अंक छल दि. 16 दिसम्बर 1979 क अंक, ताहिमे जे हमर टिप्पणी छल , से ई—
”नाटक आ एकांकी, मैथिलीमे कथा आ कविताक अपेक्षा आबो अल्प अवश्य लिखल जाइत अछि, किन्तु न्यून नहि । किछु नाटककार लोकनि जे एम्हर नाटकमे नव-नव प्रयोग कयलनि अछि से, मैथिलीकेँ अद्यावधि अपन रंगमंचक अभावक अछैतो, उत्कृष्ट भेल अछि । नवीन पीढ़ीमे एहि उत्कृष्टताक सर्वाधिक श्रेयक भागीदार जे क्यो एक नाटककार छथि तँ ओ थिकाह श्री महेन्द्र मलंगिया । विषय-वस्तु कि चरित्र-चित्रण, कथोपकथन कि पात्रानुकूल भाषा, दृश्य-संयोजन कि मंचन-सुलभता, नव तकनीकक प्रयोग कि प्रभावक तीव्रता– जाहि कोनो दृष्टिएँ देखब, हिनक नाटक हो कि एकांकी– मुग्ध कैए क’ छोड़त । पटनाक जनता दू-दू बेर मुग्ध भ’ चुकल अछि प्रस्तुत नाटक ‘ओकरा आङनक बारहमासा’क अभिनयकेँ देखि-देखिक’ । देखब जे जाहि आङनक बारहमासा एहिमे टेरल गेल अछि, तकर ध्वनि खाली ओही आङन टासँ नहि आबि रहल अछि, अपितु मिथिलाक लाख-लाख आङनसँ उठैत ओकर टीस – हाहाकार करैत टीस – सोझे मोनकेँ बेधि देब’वला अछि ।”
ई टिप्पणी 1979 क थिक । मलंगियाजी एहि (टिप्पणी)सँ बहुत आगाँ आबि गेल छथि, आगाँ बढ़िते जा रहल छथि । हिनक डेग एहिना बढ़ैत रहनु– आगाँ दिस, आर आगाँ दिस ।