जयंती पर विशेष
कन्हैयाजी हँसैत-हँसैत बताह भ’ गेलाह। बताह आ पाथरक महादेव। महादेव आ लाल सिनूरसँ नीपल-पोतल हनुमान। कन्हैयाजी अशोक वाटिकाक डारिपर नुकायल, सीताक कोरामे रामक ओंठी खसबैत हनुमान जकाँ, प्रेममय वाणीमे बजलाह, ‘गदाधर बाबू, आगू जे हो, मुदा मैथिल-नारीक सुन्दरतासँ बढ़ि क’ सुन्दरता कोनो देश, कोनो भेषमे नहि भेटि सकैत अछि। … सुन्दरतामे एकटा खास बात होइत छैक, पवित्रताक लावण्य। से ई मैथिल-लावण्य आन ठाम कतहु प्राप्त नहि। हम त’ सौंसे भारत भूमिक परिक्रमा कयने छी। पंजाब देखलहुँ, केरल देखलहुँ…।’
गदाधरकेँ बतकट्टीक अभ्यास छनि, पुरान अभ्यास। अहाँ कहब मालदह आमक स्वाद, तँ ओ तखने सिनुरिया आ गुलाबखासक गुणगान कर’ लगताह। अस्तु, कन्हैयाजीक अपूर्ण वाक्यकेँ अपूर्णे रखैत ओ बाजि उठलाह – ‘डाक्टर केके नामबूद्रीक बासापर अहाँ कोनो दिन नहि गेल छी, तेँ एहन अनटोटल गप्प बाजि रहल छी। कहाँ काजर आ हरदि-सिनूरमे रङल मैथिल – कन्या, गन्हाइत, गमकैत… आ कहाँ नामबूद्रीक तीनू कन्या! जेठकीक नाम सुरबाला, मझिलीक नाम मधुबाला, छोटकीक नाम जयबाला। एक बेर हमरा संगबे चूल कन्हैयाजी! सुन्दरताक विषयमे अहाँक सभटा अज्ञान एहि तीनू देवांगनाक दर्शनसँ समाप्त भ’ जायत!’
सुरबाला, मधुबला, जयबाला – कविताक पाँती सन नाम। सुनि क’ कन्हैयाजी चुप भ’ गेलाह। रेडियोपर विविध भारतीसँ फिल्मी गीत चलि रहल अछि। मास थिक जनवरी, मुदा भोरेसँ बरखा मसुराधार…। लोक कहैत अछि, एहि बरखासँ रब्बी-फसलकेँ बड्ड लाभ। गहूम बेसी उपजत। खेत पथार हरियर भ’ जायत। परंच कन्हैयाजी आ हुनकर अगाध-प्रगाढ़ गदाधर झाक एहि बरखासँ एतबे अर्थ जे ओ दूनू आइ पढ़ौनी करबा लेल कालेज नहि गेल छथि, आ राजेन्द्रनगर मोहल्लामे संयुक्त रूपेँ किरायापर लेल गेल अपन बासामे बैसल मैथिल नारीक शरीरक विशेषतादिक विषयमे वार्तालाप क’ रहल छथि।
दू
भगवानपुर हाइ-स्कूलक आठमे वर्गमे छलाह, तखने मरणसन्न (रोग दलनि हफीमक सेवन) अन्तिम इच्छापूर्तिक – रूवरूपेँ गदाधरक विवाह भ’ गेल छलनि। दरभंगासाँ अंग्रेजी प्रथम श्रीणी ऑनर्सक सङ बी.ए. पास क’ पटना अयलाह। विश्वविद्यालयमे नाम लिखा लेलनि। छात्रावासमे रह’ लगलाह। कन्हैयाजी ओहि छात्रावासमे गत तीन वर्षसँ रहैत छलाह। मित्रताक सूत्रपात भेल। एहि समयमे एकटा पत्र द्वारा सासुरसँ गदाधरकेँ सूचना भेटलनि। जे कमला नदीक बाढ़िमे डूबि क’ गदाधरक पत्नी स्वर्गवासी भेलीह। गदाधरकेँ ने हर्ष, ने विषाद, ने प्रसन्नता, ने पीड़ा। मुदा ओहि दिन दूनू नवीन मित्र पाँच टाका तेरह आनामे ‘हिस्की’ नामक अंग्रेजी मदिराक छोट-छिन बोतल किनलनि आ अपन कोठली भीतरसँ बन्द क’ पानिक संगे सुर-सुर क’ सोंसे बोतल पीबि गेलाह। मदिराक बहन्ती उल्लासमे दूनू मित्र प्रतिज्ञा कयलनि – आब जीवनमे कोनो दिन कोनो हालतेँ विवाह नहि करब।
कन्हैयाजी तँ कुमारे छलाह। स्वभावसँ लजकोटर, पढ़बा-लिखबामे तेजस्वी आ दस-पाँच टाका हाथपर रहैत छनि, तेँ संगी-साथीक संगतिमे लोकप्रिय। कन्हैयाजी आ गदाधर झा ‘जुगल-जोड़ी’ बेसी खन संगे रहैत छथि। दुनू मित्रक प्रिय विषय छनि सिनेमा, आ सिनेमाक प्रसिद्ध अभिनेत्रीकेँ शुभकामना-पत्र पठायब नहि बिसरैत छथि। उत्तर अब्त छनि, तँ कैक सप्ताह धरि जेबीमे रखने एहि छात्रावाससँ ओहि छात्रावास धरि घूमि अबैत छथि। मुदा, कन्हैयाजी स्वभावसँ परम लजकोटर, लजौनी-लत्ता जकाँ। अपन अन्तरंग मित्रक संग साफ-साफ कोनो गप्प क’ सकैत छथि, ओ कोनो व्यक्तिक उपस्थितिमे मौनी बाबाजी बनल रहताह। गदाधरक स्वभाव ठीक हिनकर उनटा। गप्प-शप्प्मे निर्लज्ज आ थेथर। अवसर भेटिते त्वंचाहंच लाधि बैसताह। अपना क्लासक स्त्री-समाजमे गदाधर बड़ आदर पबैत छथि, अपन हास्यप्रिय चरित्रक कारणेँ।
तीन
कन्हैयाजीक एहि अन्तर्मुखी प्रतिभाग एकटा विशिष्ट कारण अछि एकटा विशिष्ट घटना। बी.ए. मे पढ़ैत काल कन्हैयाजी अपना क्लासक एकटा कुमारी कन्या दिस आकृष्ट भेल छलाह। कन्याक नाम गायत्री झा। पशुपति झा, हाइकोर्टक एडभोकेट, गायत्रीक पिता। दू-एक बेर कोनो लाथेँ, कन्हैयाजी पशुपतिबाबूक बासापर बोरिंग-रोड गेल छलाह। गायत्रीक मायकेँ प्रणाम कयने छलाह। गायत्रीक छोट भाइ सभक लेल कैडबरी कम्पनीक टॉफी लमेन्जूस ल’ गेल छलाह। गायत्री सेहो एक बेर कन्हैयाजीकेँ कहने छलथिन, ‘अहाँ एतेक गंभीर किएक रहैत छी? किछु बाजबो करू…।’
मुदा, कन्हैयाजी किछु बाजि नहि सकलाह। आन मित्र सभ कन्हैयाजीकेँ कतबो कहलथिन, कतबो बुझओलथि, गायत्रीकेँ सिनेमा जयबाक अथवा ‘गोलघर’ पर चढ़बाक, अथवा हवाइअड्डा दिस टहलि अयबाक निमन्त्रण देल हुनकासँ पार नहि लगलनि। आ, जखन एम.ए. मे नाम लिखयबाक लेल कन्हैयाजी पुन: सहरसासँ पटना अयलाह तँ सुनबामे अयलनि, पटना हाइकोर्टक एकटा नवोदित एडभोकेटसँ गायत्रीक विवाह-कार्य संपन्न भ’ चुकल छनि आ सम्प्रति नवविवाहिता दम्पति दार्जिलिंग गेल छथि, हवा-पानि बदलबाक लेल, नवीन जीवन प्रारंभ करबाक लेल।
अस्तु, विधुर गदाधर झा आ असफल प्रेमी कन्हैयाजी प्रतिज्ञा कयलनि – साँप, हाथी, पुलिस आ नारी-जातिसँ बस फराके रहबाक चाही। फराके रहि क’ एम.ए.क दू बर्ख आ आ प्रोफेसरीक एक बर्ख दूनू मित्र बिता लेलनि।
वर्तमान स्थितिक भूमिका एवं पात्र-परिचय रूपमे एतबा कहब आवश्यक छल। आवश्यक इहो कहब छल जे दूनू मित्र कोनो-ने-कोनो प्रकारेँ सामाजिक जीवन आ जीविकाक लेल एक-दोसराक प्रति आश्रित छथि। अंग्रेजी विभागक गदाधर झा आ अर्थशास्त्र-विभागक कन्हैयाजी, अपना कालेजक राजनीतिमे, सीनेटक सदस्य सभक दलबन्दीमे मिनिस्टरसँ प्रिंसिपल धरिक शोभायात्रामे संगे रहैत छथि। संगे रहबाक लेल विवश छथि। कालेजक प्रत्येक प्रोफेसर कोनो-ने-कोनो जाति, दल, संप्रदाय आ ‘ग्रूप’ मे सम्मिलित रहैत छथि। जे ई सभ नहि करत, तकरा ने पदोन्नति हेतैक आ ने अर्थोन्नति।
गदाधर आ कन्हेयाजीक राजेन्द्रनगर-स्थित बासाक नाम छात्र सभ रखने छथि – ‘बैचलर्स होम’ अर्थात कुमार-बालक बासा! एकटा नोकर रखने छथि। भोर-साँझमे बासन-बरतन करबा लेल दाइ अबैत छनि। नोकरक नाम बिल्टू दाइक नाम पतिया। कैएक माससँ कन्हैयाजी गुप्त रूपसँ अठारह-उनैस बर्खक बिल्टू आ तीस बत्तीस बर्खक जआइलि थाकलि पतियाक रागात्मक सम्बन्धक अध्ययन क’ रहल छथि। गदाधर कहैत छथिन, ‘ई नीक काज नहि! अहाँकेँ नोकर-चाकरक गप्पमे नहि पड़बाक चाही।’
‘ई हमर स्टडीक विषय थिक। छोट जातिमे, अनपढ़ लोकमे प्रेम-भावनाक विकास कोना होइत छैक, से हम देख’ चाहैत छी। बूडि-गँवार सभक ‘एस्थेटिक सेन्स’ माने सौन्दर्य चेतना…’ कहैत-कहैत कन्हैयाजी चुप्प भ’ जाइत छथि, किएक त’ चाहक प्याली ल’ क’ पतिया एमहरे आबि रहलि अछि।
गदाधर क्रोधित भ’ जाइत छथि। अपन स्वरकेँ आर्ष बनबैत कहैत छथि, ‘मुदा अहाँक विषय सौन्दर्य शास्त्र नहि थिक। अहाँ अर्थशास्त्रक प्रोफेसर छी। अहाँ ई अध्ययन करू जे भोरसँ राति धरि पाँच परिवारमे चौका-बरतन क’ ई पतिया खबासिन अपन पाँचटा सन्तान आ मदक्की पतिक पालन कोना करैत अछि!’
कन्हैयाजी अर्थशास्त्र नहि पढ़ताह। ओ देखैत रहताह जे बिल्टू कोना पतियाक लेल दू-बूटी माँउस आ एक बाटी भात चोरा क’ राखि लैत अछि… जे कोना पतिया बिल्टूकेँ जिज्ञासा करैत छैक… एते जाड़ा लगै छौ, तँ मालिकसँ एकटा पुरान-धुरान कोट किएक नहि माङि लैत छेँ, इएह सभ देखबा-सुनबामे कन्हैयाजीकेँ आनन्द भेटैत छनि। रेशमी खोलबला सीरक ओढ़ने, रेडियोक गीत-नाद सुनैत, कोनो रससिद्ध पत्रिका अथवा पुस्तक पढ़ैत ओ बेसी काल अपने कोठलीमे पड़ल रहैत छथि – अपन ‘बैचलर्स हाम’ मे पड़ल, कोनो स्वप्नक ध्यान करैत!
चारि
मुदा, गदाधर झा निर्णय करैत छथि जे एक बेर कन्हैयाजीकेँ समय ताकि क’ डॉक्टर नामबूद्रीक बासापर ल’ जयबाक चाही। सौन्दर्य आ प्रतिभा, आधुनिकता आ फैशन, शिष्टाचार आ सिनेहक विषयमे जे सभ प्राचीन धारणा कन्हैयाजीक मोनमे नाङड़ि मोड़ने बैसल जमकल अछि से सभटा सुरबाला, मधुबाला आ जयबालाक प्रथमे दर्शनमे बिला जायत।
एहि निर्णयक कारण एतबे जे सम्प्रति गदाधर झा, अंग्रेजी विभागक लेक्चरर गदाधर झा, अपन आ मित्रक विवाह नहि करबाक प्रतिज्ञाकेँ भंग कर’ चाहैत छथि। ‘घरनी बिन घर सून’ – एहि लोकोक्तिक सार्थकता हुनका बुझबामे आबि गेल छनि।
‘दक्षिणक कनियाँ दक्षिणी (किंवा यक्षिणी) अड़ाँची जकाँ होइत अछि, सुन्दर आ सुगन्धित, सोनामे सोहागा देल’ – ई गदाधरक विचार। मुदा कन्हैयाजी बजैत छथि, ‘जिला दरभंगा, कृष्णपुर गामक हमर बड़की भौजी छथि। जँ हम कोनो दिन विवाह करबो करब तँ हुनके सन सुन्नरि, हुनके सन पवित्र, हुनके-सन सुशील कोनो मैथिल-कन्यासँ!…जखन गायत्री नहि भेटलीह, तँ कोनो सावित्री, मनोरमा, कल्याणी, निरुपमा…।’
पाँच
दिनांक बीस जनवरी, उनैस सय छियासठि। समय सांयकाल सात बजे। पार्श्वसँ गीतक रूपमे ‘आकाशवाणी’ सँ रविशंकरक सितार बाजि रहल अछि। कन्हैयाजी अपन नवका कोट-पैंटमे नुकायल जकाँ सोफापर एक कातमे बैसल छथि। श्रीमती नामबुद्री किछु काल पहिने धरि एहिठाम बैसलि छलीह, आब आंङन दिस चलि गेल छथि। अपने डॉक्टर साहब पटनामे नहि छथि, सप्ताह भरि बाहरे रहताह। गदाधर अपन सम्पूर्ण ध्यान केन्द्रित क’ डाक्टरक तेसर कन्या जयबालासँ, रविशंकरक आ विलायत खाँक सितार वादनमे तुलना करैत, संगीत विषयक अपन ज्ञानक प्रदर्शन क’ रहल छथि। … चुप्पे बैसल कन्हैयाजी दिस ताकि रहल छथि। मधुबाला डाक्टरक दोसर कन्या। पहिल कन्या, सुरबाला, पिताक संग कलकत्ता गेलि छथि। पार्श्व संगीतमे रविशंकरक सितार। मालकोश अथवा एहने कोनो मधुर राग। मधुबालाक आँखिमे स्वप्न। कन्हैयाजीक आँखिमे स्वप्न। स्वप्नमे कविता। कवितामे मन्दाक्रान्ता छन्द।
‘छन्द यदि मिले जाय, जीवन थाके दु:ख की आर?’ – रविचीन्दनाथक कोनो नायिका जिज्ञासा करैत छथि, जँ छन्द भेटि जाय तँ जीवनक कवितामे आर कोनो अभाव की रहि जायत?आर कोनो अभाव नहि, दु:ख नहि, आशंका नहि – कन्हैयाजी मोने-मोन एकटा नवीन छन्द जोड़ि रहल छलाह। ई मैथिली भाषाक, कोनो अपरिचित देह-काव्यक अपरिचित छन्द.. जाहिसँ पहिले बेर चिन्हार होयबाक ओ चेष्टा क’ रहल छथि। आप्राण चेष्टा। महाप्राण चेष्टा। जीवनमे पहिल दिन कोनो अवसर नहि भेटल छनि सुदूर केरल प्रान्तक कोनो नारिकेल-सुन्दरीक धकधक करैत करेजक संगीत सुनबाक। पहिने कोनो दिन कन्हैयाजी एतेक समीपसँ आ एतेक स्पष्ट रूपेँ रोहु माछक जोड़ा आँखिक निशा निमन्त्रण नहि पओने छथि। वयस सेहो नहि छनि, अनुभव आरो कम। आ, गदाधर झा एहि माछक जोड़ा, एहि रसदग्ध वातावरण, एहि अप्सरा-लोकक प्रभावसँ कन्हैयाजीकेँ मरल यमुना नदीमे सहस्त्रमुख कालिय-सर्पक माथ-मुकुटपर ठाढ़ भेल, मन्द-मन्द मुस्की दैत देखि क’ मोने-मोने अपन विजयसँ प्रसन्न भ’ रहल छलाह।
रविशंकर सितारक बाद अली अकबर खाँक सरोद वादन। सरोदक संगे चाहक दोसर खेप। चाहक बाद कन्हैयाजी जेबी 555 सिकरेटक कोटक जेबीमे रखने रहैत छथि। कोनो सीनियर प्रोफेसरकेँ प्रसन्न करबाक लेल, कोनो सभा गोष्ठीमे धाख जमयबाक लेल, ई दामी सिकरेट बड्ड लाभप्रद होइत अछि।… जयमाला पुछलथिन, ‘अहाँकेँ ई सिकरेट बड्ड पसिन्न अछि?’
‘नहि, बड्ड पसिन्न नहि अछि। मुदा मोन बहटारबाक हेतु, कौखन एकटा सिकरेट पीबि लैत छी।’ सिकरेट जरा क’ कन्हैयाजी सलज्ज भावेँ जेना अपन नवीना जेठसासुकेँ उत्तर देल जाइत छैक, बजलाह। जयमाला अगिला बर्ख ‘प्राइवेट’ रूपसँ अर्थशास्त्रमे एम.ए. परीक्षा देब’ चाहैत छथि… कन्हैयाजी अर्थशास्त्रक लेक्चरर छथि…अतएव हुनक समीपता पायब जयमालाक लेल अधलाह नहि, लाभदायक। गदाधरसँ अपन ध्यान हटा क’ कन्हैयाजी दिस आकृष्ट होइत ओ पुन: एकटा प्रश्न उठओलनि, ‘अहाँकेँ कोन-कोन वस्तु पसिन्न अछि खयबामे? आ पीबामे?’ जखन कोनो प्रश्न कयल गेल अछि तँ कोनो उत्तर अवश्य देबाक चाही, ई सोचि क’ कन्हैयाजी मोने-मोन अपन पसिन्नक वस्तु सभ ताकय लगलाह। गदाधर कहलथिन, ‘पीबाक वस्तु सभमे हमरा सभसँ पसिन्न अछि प्रिन्स होटलक हरियरका पत्ती चाह।’
कन्हैयाजी लजा गेलाह। लजाइते-लजाइते बजलाह, ‘हमरा लेल कोका-कोलासँ बढ़ि क’ आन किछु नहि! एखनो भरि दिनमे आठ-दस बोतल कोका-कोला पीबि जाइत छी। मुदा आब पटनामे जल्दी भेटिते नहि अछि!’ मधुबाला ई उत्तर सुनि क’ उत्तेजित भ’ गेलीह, ‘हमहूँ एहि पेय द्रव्यक भक्त छी! एक बेरमे हम दस-दस बोतल कोका-कोला पीने छी। माय हमर एहि अभ्यासक कारणे हमरापर क्रोधित रहैत छथि मुदा, कोका-कोलासँ बढ़ि क’ आन कोनो वस्तु नहि, ने चाह ने आन कोनो शरबत।’ गदाधर आ जयमाला चाहक पक्षमे छथि आ मधुबाला आ कन्हैयाजी कोको-कोला प्रशंसक।
कन्हैयाजी सिकरेटक सुगन्धित धुआँ उगिलैत रहलाह। जयमाला चाहक प्रशंसामे नव-नव खिस्सा सुनओलनि। ‘कोका-कोला’ सँ आरम्भ भ’ फ्रांस आ इटलीधरिक मदिरा सभक गप्प भेल। चारू व्यक्ति सोफापर बैसल, एक दोसराक अधिक समीप आबि गेलाह। गदाधर मोने-मोने भजार कर’ लगलाह जे कन्हैयाजी मधुबालासँ विवाह करबाक लेल तैयार होथि तँ ओ अपने जयमालाकेँ बरमाला पहिरा देथिन।… डाक्टर नामबूद्रीकेँ अथवा हुनकर स्त्रीकेँ कोनो विरोध नहि होयतनि। ओ सभ केरल प्रदेशक ब्राह्मण छथि, ई सभ मैथिल देशक ब्राह्मण। एकबेर पुन: शंकराचार्य आ मण्डन मिश्रक परिवारमे आत्मिक ‘मिलन’ होयत। गदाधर एकटा पुरान स्वप्न देखि रहल छथि।
छओ
पटना-नगरक राजनीतिक कारणे डाक्टर नामबूद्रीक डाक्टरी नहिएँ जकाँ चलैत छनि। नीक लोक छथि ओ, सज्जन आ मुँहदुब्बर। रोगी सभ मात्र दबाइ-दारू नहि चाहैत अछि, चाहैत अछि बड़का लिफाफा-डाक्टर अवश्य होइनि एकटा नीक मोटरगाड़ी, एकटा नीक हबेली, बाज’- भूक’मे बिलायती कुकूर जकाँ तेजी, दू टा नर्स होइनि, चारिटा कम्पाउन्डर – माने डाक्टर महोदय डाक्टरीसँ बेसी विज्ञापन आ प्रचारक विद्यामे पारंगत लोक नहि छथि। कोनो तरहेँ जीवन निर्वाह कय रहल छथि – फाटल-चीटल जिनगीक छिद्र सभकेँ कोनो तरहेँ झँपैत कोनो तरहेँ मध्यवर्गीय जीवनक दिन आ राति बितबैत। जयमाला आ मधुबाला कोनो नीक परिवारमे चलि जाथि एहिसँ बेसी प्रसन्नता हुनका आर की भ’ सकैत छनि…।
गदाधर हिसाबी लोक छथि। हिसाब करैत छथि जे जयमाला बी.ए. पास छथि, अगिला वर्ष एम.ए. कैएटा लेतीह। कोनो कालेजमे नौकरी भैए जयतनि। दूनू प्राणी मिलि क’ हजार टाका प्रतिमास कमा लेताह। आर की चाही? जीवनमे लोककेँ आर की चाही…? एकटा सुन्नरि स्त्री, एकटा सजल-सजाओल घर, एकटा अर्थ आ प्रतिष्ठाबाला चाकरी – आर किछु नहि। गदाधर हिसाब जोड़ि रहल छलाह आ खयबा-पीबाक वस्तु सभक विषयमे गप्प क’ रहल छलाह।
तखने मधुबाला पूछलथि, ‘पीबाक गप्प बड्ड भेल! आब ई कहल जाय जे खयबाक वस्तुमे अहाँकेँ सभसँ बेसी प्रिय कोन वस्तु अछि। माने कोन-कोन वस्तु!’ जयमाला स्वयं सेहो जेना एहि प्रश्नक प्रतीक्षा क’ रहलि छलीह। गप्पकेँ लोकैत बाजि उठलीह, ‘हँ-हँ गदाधरबाबू, ई कहू जे अहाँकेँ सभसँ पसिन्न कोन भोज्य पदार्थ!… कोनो दिन निमंत्रण द’ क’ अहाँ सभकेँ हम सएह खोआयब। अपना हाथे रान्हि क’ लोककेँ भोजन करायब हमरा नीक लगैत अछि। तेँ हमर माय हमर दोसर नाम रखने छथि – द्रौपदी! पाण्डवक स्त्री द्रोपदी भानस करबामे बड़ कुशल छलीह।… हमरा देशमे कहल जाइत छैक जे मद्रासी उपमा आ मराठी श्रीखण्ड सभसँ पहिने ओएह बनओलनि।’
द्रौपदी – ई नाम सुनि क’ कन्हैयाजी बड़ प्रसन्न भेलाह। पाँचो पाण्डबक स्त्रीद्रुपदसुता द्रौपदी! श्रीकृष्णक रक्षिता… दुर्योधन-दु:शासनक प्राणहारिणी… मुदा मधुबाला द्रौपदी नहि छथि, कोनो अंग आ कोनो रंग-ढंगसँ नहि। मधुबाला जँ छथि तँ रासलीलाक राधा-रानी छथि…‘धीरसमीरे यमुना तीरे वसति वने वनमाली!’ महगी भत्ता मिला क’ सात सय टाकाक नौकरी, सालमे तीन मासक अवकाश, राजेन्द्रनगर इलाकामे अपन छोट-छिन बंगला आ स्वामिक लेल भानस करैत चाह-पान बनबैत, मित्र मण्डलीक स्वागत करैत, कोनो सुमधुर गीत गबैत कएटा रासलीलाक राधारानी – कन्हैयाजी अपने कल्पनासँ भाव-विभोर छथि।
विवाह नहि करबाक, अथवा मात्र मैथिले कन्यासँ विवाह करबाक मानसिक प्रतिज्ञा बिसरि गेल छनि। गदाधर ठीके कहने छलथिन जे मधुबाला इन्द्रजालसँ बाँचि क’ बाहर चल आयब असंभव थिक। किन्तु… प्रत्येक नाटकीय घटनाक चूड़ान्त विक्षेप जकाँ जखन तेसर बेर मधुबाला भोजन प्रसंग कयलनि, तँ गदाधर कहलथिन, ‘खाद्य पदार्थमे हमरा सभसँ प्रिय अछि बंगालक प्रसिद्ध मिष्ठान्न, जकर नाम थिकैक रसगुल्ला।’
‘हमरा रसगुल्ला बनब’ अबैत अछि! अगिला रवि दिन हम अहाँ सभकेँ अपना हाथेँ रसगुल्ला बना क’ खोआयब।’ जयमंगला जेना छोट बच्चा जकाँ प्रसन्न होइत, दुनू हाथेँ थपड़ी बजबैत, सोफासँ उठि क’ ठाढ़ि होइत बजलीह। एतेक कालधरि कन्हैया इएह विचारि रहल छलाह जे अपन पसिन्नक विषयमे ओ की कहथि, सत्य अथवा फूसि। सत्य गप्प एतबे जे रोहु-माछक पलै कन्हैयाजीकेँ बड़ प्रिय छनि। मात्र माछ टा खयबाक हेतु ओ प्रत्येक छुट्टीमे अपन गाम जाइत छथि। शहर-बाजार, होटलक माछ हुनका एको रत्ती पसिन्न नहि। दही-हरदिमे सानि क’ भूजल गेल, सरिसोसँ झोराओल गेल, अपना पोखरिक रोहु!
सात
‘हमरा माछ पसिन्न अछि। रोहु-माछसँ बेसी नीक भोज्य पदार्थ एहि असार-संसारमे किछु नहि छैक। हम मैथिल ब्राह्मण छी, हमरा सभक जीवनमे प्रथम वस्तु थिक माछ आ दोसर वस्तु थिक दही-चूड़ा आ तेसर वस्तु कोनो नहि थिक!’ कन्हैयाजी कहलथिन। ई उत्तर सूनि क’ ठीके रोहु माछ जकाँ जयमाला आ मधुबाला दुनू बहीनिक आँखि पसरि गेलनि।… गदाधर झा ठोर टेढ़ क’ आँखि नचबैत, दु:ख प्रकट करैत इशारा कयलनि जे कन्हैयाजी एखनो अपन ई निर्णय बदलि लेथु। एखनो ओ कहि देथु जे रसगुल्ला अथवा श्रीखण्ड अथवा उपमा-उत्तपमा अथवा सन्देश अथवा एहन कोनो आन निरामिष वस्तु कन्हैयाजीकेँ पसिन्न छनि। किन्तु, कन्हैयाजी अपन मित्रक इशारा बूझि नहि सकलाह। बूझि नहि सकलाह जे दक्षिण भारतमे मत्स्य-मांस खायब ब्राह्णक लेल एकटा बड़ पैघ अपराध बुझल जाइत छैक आ कतबो ‘आधुनिक’ आ कतबो ‘फैशनेबुल’ भ’ क’ जयमाला-मधुबाला दक्षिणक ब्राह्मणक कन्या छथि – कोनो दिन रोहु माछक नामो नहि सुनने होयतीह!
‘अहाँकेँ बुझल नहि होयत, मुदा मिथिलाक राष्ट्रीय-चिह्न थिक इएह रोहु माछ! एहिसँ अधिक शुभ वस्तु आर किछु नहि। माछ देखि क’ यात्रा करी तँ सभ काज सफल भ’ जाय। मैथिलीक प्राचीन आ आधुनिक दुनू कवितामे सभसँ बेसी उपमा माछक भेटत। माछे सन नायिकाक आँखि… माछे सन नायिकाक देह=यष्टि… आ माछेसन नायिकाक स्वभा!’ कन्हैयाजी माछक प्रशंसामे धाराप्रवाह प्रवचन कर’ लगलाह।
जयमाला अपन छोट बहीन दिस ताकि रहलि छथि। मधुबाला विचित्र दृष्टिसँ चकित-भयभीत, कन्हैयाजीक भाषण सुनि रहलि छथि। गदाधर झा पराजित भ’ ई सोचि रहल छथि जे ई ऊँट आब दोसर करौट कोना फेरत। ऊँट करौट नहि फेरत। कन्हैयाजी माछक प्रसंगमे आन सभ गप्प बिसरल रहताह…।
आठ
डाक्टर नामबूद्रीक बासासँ घूरि क’ अपना डेरामे अयलाक बाद कन्हैयाजी पहिल काज इएह कयलनि जे बिल्टूकेँ बजा क’ कहलथिन, ‘मछुआटोली जा क’ एक सेर रोहु कीनि क’ ल’ आन! आइ रातिमे रोटी आ माछ खायब…पतिया कतय गेल? चल गेल की?’.. पतियाक हाथक माछ कन्हैयाजीकेँ बड़ पसिन्न। जहिया माछ अबैत अछि, पतिये भानस करैत अछि। चारि खण्ड तरल, आठ खण्ड झोराओल रोहु खा क’ कन्हैयाजी तृप्त भ’ जाइत छथि।
‘मित्रवर कन्हैयाजी, अहाँक मूर्खताक करणे आजुक साँझ पानिमे भसिया गेल…। कोन काज छल माछक प्रशस्ति गयबाक?’ गदाधर झाक मोनक सन्ताप एखनोधरि समाप्त नहि भेल छनि। जी धक्-धक् क’ रहल छनि। जँ एही कारणे जयमाला हुनकासँ विमुख भ’ जाथि? मुदा, कन्हैयाजीकेँ कोनो दु:ख नहि। ओ उत्तर देलथिन, ‘माछ आ प्रेमिकामे हम सभ दिन माछेकेँ प्रश्रय दैत रहब, गदाधर बाबू! प्रेमिका तँ मुइलाक बादो स्वर्गमे भेटत – उर्वशी, मेनका, रम्भा, तिलोत्तमा, एक-सँ एक सुन्नरि, एक-सँ-एक मधुबाला! मुदा, रोहु माछ नहि भेटत! अतएव एहि जीवनमे हमरा माछे चाही, माछ-नयनी नहि!’
क्रोध आ आन्तरिक व्यथाक कारणे गदाधर झा रातिमे माछ नहि खयलनि! कन्हैयाजी कतबो कहलथिन, ओ आलूक सन्ना आ रोटी खा क’ सूति रहलाह! सुतबासँ पहिने निश्चय कयलनि काल्हि भोरे जयमालाकेँ सूचित करताह जे आइसँ ओ माछ-मांस खायब त्यागि देने छथि।
दोसर दिन कन्हैयाजीसँ पहिने तैयार भ’ क’ गदाधर झा कालेज चल गेलाह। मित्रक एहि अप्रत्याशित व्यवहारसँ कन्हैयाजीकेँ बड़ दु:ख भेलनि। प्रतिदिन एक्के रिक्सापर दुनू मित्र कालेज जाइत छलाह। एके संगे ‘रीगल’ होटलमे चाह-सिंघाड़ा खाइत छलाह। दु:खक कारणे कन्हैयाजी आइ कालेज नहि गेलाह। बिल्टूक हाथेँ छुट्टीक दरखास्त पठा देलथिन। अपने रतुका माछ आ आलू-कोबीक संगे भात खा क’ सूति रहलाह। लगले निन्न भ’ गेलनि।
कन्हैयाजी दुपहरिया दिनक निद्रामे एकटा अलौकिक स्वप्न देखलनि। ओ देखलनि जे चारू कात अथाह समुद्र अछि, ओ स्वयं एकटा हंसग्रीव नौकामे बैसल छथि आ हुनका दुनू दिस बैसलि अछि दू टा सुन्नरि, मुदा, दुनू युवतीक डाँड़सँ नीचा आधा देह रोहु माछ जकाँ छैक आ उपरका आधा देह मनुक्ख जकाँ!
नओ
निन्न फुजलाक बाद, कन्हैयाजी बिल्टूकेँ कहलथिन, ‘जल्दीसँ एक कप चाह बना क’ ल’ आ।’…. कनियेँ कालक उपरान्त बिल्टू चाहक संगे एकटा चिट्ठी आनि क’ देलकनि। बाजल, ‘कोनो डाक्टर साहेबक नोकर द’ गेल अछि।’
मधुबालाक चिट्ठीमे एतबेटा गप्प लिखल छलैक जे ओ अपन पड़ोसिया, चौधरीजीक स्त्रीसँ रोहु माछ रान्हब सीखि रहल छथि। अतएव, रवि-दिन साँझखन कन्हैयाजीकेँ हुनका बासापर अवश्य जयबाक चाही – माछ खयबाक हेतु। चिट्ठी पढ़लाक बाद, कन्हैयाजी पुन: आँखि मूनि क’ सूति रहलाह…फेर वएह स्वप्न देखबाक हेतु।